Wednesday, December 12, 2007

निशानी

समझ नहीं आता की क्या कर डालूँ मैं
तुम्हें बदलने की कोशिश करूं या खुद को बदल डालूँ मैं

अब और यही दर्द नहीं सहा जाता मुझसे
दम तोड़ने दूं या खुद को सम्हालूँ मैं

जाने कब से बरसने को तरसते हैं बादल
रोकूँ उन्हें या अपना दामन भीगा डालूँ मैं

जीने नहीं देती, पर तेरी यही एक निशानी बाकी है
इस दर्द को सीने से क्या सोच के निकालूँ मैं

Shubhashish

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